Thursday, August 11, 2011

अजनबी गलियों से

अजनबी गलियों से
निकल रहा एक लड़का
दांए, बांए घरों को देखता,
देखकर सोचता
मेरा भी होगा एक घर
आगे बढ़ता हुआ
चलता हुआ, ख्ुालता गेट
आती अंटी, देखकर मुस्कराई
क्या सोचा, क्या समझा, मैंने नहीं जाना
आगे मिला एक कुता
जो भौंक रहा था
सायद यही कह रहा था
आगे मत जाना
वहां खतरा है
मुड़ती, घुमती गलियों में से
गुजरता, आगे मिली एक सुन्दर बाला
सामने से आती हुई,
नीचे गर्दन किए हुए,
एकदम गुजर गई,
मन को चैन आया,
फिर आया एक मोड़,
वहां दिखाई दिया एक बच्चा,
मुझे बोला, अंकल आ गए,
मैं बोला आ गया बेटा,
धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था,
अपनी मंजिल तक,
फिर हुई मुलाकात एक गुलसन से,
नजारा देखकर समझ में आया,
आज फिर कुछ खास है,
आगे बढ़ा, देखा लगा हुआ पंडाल,
वहां पर सुरू हो रही थी रामलीला,
आखिर मंजिल आ ही गई,
वहीं अपना जर्जर मकान,
वही दोस्तों की महफिल,
वो ही छोटा सा कमरा
चलता हुआ पंखा छोड़कर गया कवि,
छत पर बैठे दोस्त,
सभी मस्त अपने अंदाज में,
सामने भी थी महक,
तैंयारियां चल रही थी,
सज रहे थें आज की रामलीला के लिए,
लिखता रहा, बोलता रहा,
सभी दोस्तों से की मुलाकात,
बताई एक छोटी सी बात,
सब हर्सित, मैं भी खुस,
बस एक पल, एक समय
जो आगे चला ही रहा था,
मैंने रोकी कलम, ठहर कदम,
आराम की खातिर, लेट गया,
बिछाकर पलंग,
उस छोटी सी बात में दम था,
कंवल भी कहां कम था,
बस लिखा डाला एक पैगाम,
सुनहरी साम, बस तेरे नाम ..............................
सन्दीप कंवल

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